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व॒यं चि॒द्धि वां॑ जरि॒तार॑: स॒त्या वि॑प॒न्याम॑हे॒ वि प॒णिर्हि॒तावा॑न्। अधा॑ चि॒द्धि ष्मा॑श्विनावनिन्द्या पा॒थो हि ष्मा॑ वृषणा॒वन्ति॑देवम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vayaṁ cid dhi vāṁ jaritāraḥ satyā vipanyāmahe vi paṇir hitāvān | adhā cid dhi ṣmāśvināv anindyā pātho hi ṣmā vṛṣaṇāv antidevam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व॒यम्। चि॒त्। हि। वा॒म्। ज॒रि॒तारः॑। स॒त्याः। वि॒प॒न्याम॑हे। वि। प॒णिः। हि॒तऽवा॑न्। अध॑। चि॒त्। हि। स्म॒। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒नि॒न्द्या॒। पा॒थः। हि। स्म॒। वृ॒ष॒णौ॒। अन्ति॑ऽदेवम् ॥ १.१८०.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:180» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अनिन्द्या) निन्दा के न योग्य (वृषणौ) बलवान् (अश्विनौ) समस्त पदार्थ गुण व्यापी स्त्रीपुरुषो ! तुम जैसे (हितावान्) हित जिसके विद्यमान वह (विपणिः) विशेषतर व्यवहार करनेवाला जन (वाम्) तुम दोनों की प्रशंसा करता है वैसे हम लोग प्रशंसा करें। वा जैसे (चित्, हि) ही (जरितारः) स्तुति प्रशंसा करने और (सत्याः) सत्य व्यवहार वर्त्तनेवाले (वयम्) हम लोग तुम दोनों की (विपन्यामहे) उत्तम स्तुति करते हैं वैसे (स्म, हि) ही (अन्तिदेवम्) विद्वानों में विद्वान् जन की सेवा करें वा जैसे (हि, स्म) ही आश्चर्यरूप (पाथः) जल (चित्) निश्चय से तृप्ति करता है वैसे (अध) इसके अनन्तर विद्वानों का सत्कार करें ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे विद्वान् जन प्रशंसा करने योग्यों की प्रशंसा करते और निन्दा करने योग्यों की निन्दा करते हैं, वैसे वर्त्ताव रक्खें ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हेऽनिन्द्या वृषणावश्विनौ यथा हितावान् विपणिर्वां प्रशंसति तथा वां प्रशंसेम यथा चिद्धि जरितारः सत्या वयं युवां विपन्यामहे तथा स्माह्यन्तिदेवं सेवेमहि यथा हि स्म पाथश्चित् तर्पयति तथाध विदुषः सत्कुर्याम ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) (चित्) अपि (हि) (वाम्) युवाम् (जरितारः) स्तावकाः (सत्याः) सत्सु साधवः (विपन्यामहे) विशेषेण स्तुमहे (वि) (पणिः) व्यवहर्त्ता (हितावान्) हितं विद्यते यस्य सः (अध) अनन्तरम्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (चित्) इव (हि) खलु (स्म) एव (अश्विनौ) सर्वपदार्थगुणव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (अनिन्द्या) निन्दितुमनर्हौ (पाथः) उदकम् (हि) विस्मये (स्म) अतीते। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वृषणौ) बलिष्ठौ (अन्तिदेवम्) अन्तिषु विद्वत्सु विद्वांसम् ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यथा विद्वांसो प्रशंसनीयान् प्रशंसन्ति निन्द्यान्निन्दन्ति तथा वर्त्तितव्यम् ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे विद्वान लोक प्रशंसा करण्या योग्यांची प्रशंसा करतात व निन्दा करण्यायोग्याची निंदा करतात, तसा माणसांनी व्यवहार करावा. ॥ ७ ॥